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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


मिस पद्मा मुंशी प्रेम चंद

सन्ध्या हो गयी थी। पद्मा सैर करने जा रही थी कि प्रसाद आ गये। सैर करना मुल्तवी हो गया। बातचीत में सैर से कहीं ज्यादा आनन्द था और पद्मा आज प्रसाद से कुछ दिल की बात कहने वाली थी। कई दिन के सोच-विचार के बाद उसने कह डालने का निश्चय किया।
उसने प्रसाद की नशीली आँखों से आँखें मिलाकर कहा- तुम यहीं मेरे बँगले में आकर क्यों नहीं रहते?
प्रसाद ने कुटिल-विनोद के साथ कहा- नतीजा यह होगा कि दो-चार महीने में यह मुलाकात बन्द हो जायेगी।
'मेरी समझ में नही आया, तुम्हारा आशय क्या है।'
'आशय वहीं हैं, जो मैं कह रहा हूँ।'
'आखिर क्यों?'
'मैं अपनी स्वाधीनता न खोना चाहूँगा, तुम अपनी स्वतन्त्रता न खोना चाहोगी। तुम्हारे पास तुम्हारे आशिक आयेंगे, मुझे जलन होगी। मेरे पास मेरी प्रेमिकाएँ आयेंगी, तुम्हें जलन होगी। मनमुटाव होगा, फिर वैमनस्य होगा और तुम मुझे घर से निकाल दोगी। घर तुम्हारा है ही! मुझे बुरा लगेगा ही, फिर यह मैत्री कैसे निभेगी?'
दोनो कई मिनट तक मौन रहे। प्रसाद ने परिस्थिति को इतने स्पष्ट, बेलाग, लट्ठमार शब्दों में खोलकर रख दिया था कि कुछ कहने की जगह न मिलती थी।
आखिर प्रसाद ही को नुकता सूझा। बोला- जब तब हम दोनों यह प्रतिज्ञा न कर लें कि आज से मैं तुम्हारा हूँ और तुम मेरी हो, तब तक एक साथ निर्वाह नहीं हो सकता!
'तुम यह प्रतिज्ञा करोंगे?'
'पहले तुम बतलाओ।'
'मैं करूँगी।'
'तो मैं भी करूँगा।'
'मगर इस एक बात के सिवा मैं और सभी बातों में स्वतंत्र रहूँगी!'
'और मैं भी इस एक बात के सिवा हर बात में स्वतंत्र रहूँगा।'
'मंजूर।'
'मंजूर!'
'तो कब से?'
'जब से तुम कहो।'
'मैं तो कहती हूँ, कल ही से।'
'तय। लेकिन अगर तुमने इसके विरुद्ध आचारण किया तो?'
'और तुमने किया तो?'
'तुम मुझे घर से निकाल सकती हो; लेकिन मैं तुम्हें क्या सजा दूँगा?'
'तुम मुझे त्याग देना, और क्या करोगे?'
'जी नहीं, तब इतने से चित्त को शान्ति न मिलेगी। तब मैं चाहूँगा तुम्हे जलील करना; बल्कि तुम्हारी हत्या करना।'
'तुम बहुत निर्दयी हो, प्रसाद?'
'जब तक हम दोनों स्वाधीन हैं, हम किसी को कुछ कहने का हक नहीं, लेकिन एक बार प्रतिज्ञा में बँध जाने के बाद फिर ने मैं इसकी अवज्ञा सह सकूँगा, न तुम सह सकोगी। तुम्हारे पास दंड का साधन हैं, मेरे पास नहीं। कानून मुझे कोई भी अधिकार नहीं देगा। मैं तो केवल अपनी पशुबल से प्रतिज्ञा का पालन कराऊँगा और तुम्हारे इतने नौकरों के सामने मैं अकेला क्या कर सकूँगा?'
'तुम तो चित्र का श्याम पक्ष ही देखते हो! जब मैं तुम्हारी हो रही हूँ, तो यह मकान, नौकर-चाकर और जायदाद सब कुछ तुम्हारा हैं। हम-तुम दोनों जानते हैं कि ईर्ष्या से ज्यादा घृणित कोई सामाजिक पाप नहीं हैं। तुम्हें मुझसें प्रेम हैं या नहीं, मैं नहीं कह सकती; लेकिन तुम्हारे लिए मैं सब कुछ सहने, सब कुछ करने के लिए तैयार हूँ।'
'दिल से कहती हो पद्मा?'
'सच्चे दिल से।'
'मगर न-जाने क्यों तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं आ रहा हैं?'
'मैं तो तुम्हारे ऊपर विश्वास कर रही हूँ।'
'यह समझ लो, मै मेहमान बनकर तुम्हारे घर में न रहूँगा, स्वामी बनकर रहूँगा।'
'तुम घर के स्वामी ही नही, मेरे स्वामी बनकर रहोगे। मैं तुम्हारी स्वामिनी बन कर रहूँगी।'

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